🏹 *अंडा और माँसाहार मानव शरीर ही नहीं कृषि, समाज और पूरे विश्व के लिए है खतरनाक।* 🏹
👉🏼गायत्री परिवार के प्रतिनिधत्व में सर्वधर्म सर्वसमाज के लोग आज शाषण के धर्मविरोधी, संस्कृति विरोधी और विज्ञानविरोधी कुनीति के खिलाफ सरकार से लोहा लेने रोड पर हैं।
*_आंदोलन तो शुरू हुआ है, परंतु गर ये सरकार किन्हीं कारणों से इस अंधे नीति को वापिस नहीं ली तो गायत्री परिवार की ही नहीं पूरे मानवता की हार होगी_* गर ऐसा हो गया तो इसके बाद हम समाज कभी खड़े नहीं हो सकेंगे, *_क्यूँकि जनता का धर्म से विश्वास उठ जाएगा, दोबारा कोई लड़ने सड़क में नहीं आएगा_*
धर्म क्या है? आज किसी भी विवेकशील मानव को यह बताने की आवश्यकता नहीं।
👉🏼 *प्रकृति प्रदत्त साधन संसाधनों का सदुपयोग ही धर्म और दुरपयोग ही अधर्म है* = वर्तमान मानव सभ्यता मे मानव द्वारा आवश्यकता से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति, वैश्विक उधोग-धंधों द्वारा प्रकृति के विरुद्ध कारखाने-फैक्ट्री जिनसे वायुमंडलीय प्रदूषण एवं जलप्रदूषण खड़ा हुआ है, पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले वाहन बनाएँ, हम विकास के नाम रोजाना जंगलों को कांट रहे हैं। विचार कर देखने से समझ आता है २१वीं सदी का मानव जीवनोपयोगी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है, जहाँ एक ओर पूरी मानवता सुविधाभोगी हो चुकी है तो वहीं दूसरी ओर मौत के साथ खेल रही है। समाज इससे पहले इतना अज्ञानी कभी न था, आज हर इंसान मिलकर एक दूसरे की मौत का इंतजाम कर रहे है, क्यूँकि इस अदृश्य शोषणकारी व्यवस्था को हम ही बढ़ावा दे रहे हैं। समाज मे फर्क मात्र इतना आगया है कि हम अपने जीवन के और परिवेश के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं। न ही आज कोई युवा पत्रकारिता करता और न आज के युवा अखबार पढ़ते, शायद इसलिए पत्रकारिता में भी अब पहली जैसी बात नहीं, दम नहीं की यह समाज को जागृत कर सके, दिशा दे सके।
मेरी बालोद जिला समन्वयक से विनती रही है, पूरे धरना प्रदर्शन में मैंने हर स्तर पर साथ दिया है।
_*पुरजोर से मैंने यही कहा है भविष्य का धर्म वैज्ञानिक धर्म*_ धरना, रैली आदि अपनी जगह ठीक है। हम सिर्फ धर्म और संस्कृति का नाम लेकर सरकारी योजनाएँ विफल नहीं कर सकेंगे, *हमें विज्ञान को भी साथ लेकर चलना होगा* जब तक हम यह सिद्ध नहीं कर दें कि *धर्म ही सही विज्ञान है और विज्ञान ही सही धर्म है* तब तक हम जीत नहीं सकेंगे, और समाज का सुधार नहीं कर सकेंगे।
*सत्य सत्य ही रहता है चाहे उसे किसी भी कसौटी पर कसा जाए, गर कसा न जा सका तो सत्य सत्य नहीं*। यह बात अंडे मात्र की नहीं है बल्कि उससे कहीं गंभीर है।
आज जो समाज है वह किसी धर्म को नहीं मानता, आज नास्तिकता का दौर अपनी चरम पर है। आने वाले समय के युवाओं को अगर धर्म की ओर लीन करना है एक सही इंसान बनाना है तो हमें *धर्म और विज्ञान के बीच के फासलों को मिटाना होगा*।
तब ही युगपरिवर्तन संभव होगा पंडित श्री राम शर्मा आचार्य और गांधी के सपनों का भारत।
जो सिद्ध किया जा सकता है उसे पूरी दुनिया मानती है, *आज संतों से अधिक विश्व में वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स को समझा जाता है।* जिसका कारण साफ है, (ज्यादातर) संतों का अधिक ध्यान समाज के विश्लेषन कि ओर होता है वे दर्शन और आध्यात्म की बातें करते हैं, वहीं वैज्ञानिक और डॉक्टर्स समस्या का तर्क पूर्ण और शोध द्वारा समाधान बताते हैं और अपने फितरत से ही वे समाधान करने वाले (प्रॉब्लम सॉल्वर) हैं। आज दुनिया को समस्या बताने वाले नहीं समाधान बताने वाले चाहिए।
*हमारी गैरजिम्मेदारी और असंवेदनशीलता ही सामाजिक समस्याओं का मूल*👇🏼
आज का समाज हर एक व्यक्ति से संवेदनशील होने की मांग करता है, बस इसी की कमी है। आज हम सब निहायती स्वार्थी हो चुके हैं, हम सभी प्रायः एक ही किस्म के समस्या से जूझ रहे हैं परंतु मिलकर कोई भी लड़ना नहीं चाहते। आवाज उठाने, घर से बाहर निकलने, सरकार से लड़ने में या तो कोई रुचि नहीं या हिचकिचाते और डरते हैं। कारण इतना मात्र है की हमारे घर किसी का खून नहीं हुआ, किसी की बेटी पर बालात्कार नहीं हुआ, कोई एक्सीडेंट से नहीं मरा, किसी को जहरीले भोजन खाकर अब तक कैंसर और हार्ट अटैक जैसी जानलेवा बीमारियाँ नहीं हुईं, कोई अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण का शिकार नहीं हुआ, कोई जन प्रतिनिधियों द्वारा धमकाया या ठगा नहीं गया। 👆🏼अतः हम उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब उपरोक्त घटनाएं हमारे साथ घटेंगी।
🏹 _उनके लिए जिन्हें लगता है अंडा परोसने का विरोध गलत है और जो चाय ठेलों और दफ्तरों में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ इस मुद्दे पर बात करते हैं, एकबार फिरसे सोच लीजिए।_
*अंडा खाना शरीर ही नहीं समाज के लिए क्यूँ घातक है? इसके विभिन्न पहलूओं पर प्रकाश डाला जा रहा है आप को जिस तरह से भी समझ आजए।*👇🏼
*१. धार्मिक/ सांस्कृतिक पक्ष=* भारतीय संस्कृति में पतंजलि, चरक जैसे ऋषियों ने आयुर्वेद दिया है जो सर्वमान्य है पूरा विश्व आज आयुर्वेद की ओर रुख कर रहा है। आयुर्वेद अनुसार अंडा शरीर के लिए विष है और इसके दुर्गामी परिणाम घातक होंगे। पिछले कुछ दशकों में अंडे को पोषण के नाम पर कुप्रचारीत कर समाज के लोगों में इसके प्रति ग़लत जानकारियाँ दी गईं जिस कारण आज इसे स्वीकार लिया गया है। यहाँ तक कि सरकारों ने इसके टीवी पर विज्ञापन दिए कि रोज अंडा खाना सेहत के लिए फायदेमंद है। स्कूल के किताबों में भोजन की थाली पर चित्र छापा जाता है जिसमे अंडा और मांस को पोषक आहार बताया जाता है। जैसे समाज ने चाय जैसा घातक पेय अपना रखा है वैसे ही अंडे और मांस के साथ भी है।
*२. आध्यात्मिक पक्ष=*
आध्यात्म और मनोविज्ञान कहता है आहार जितना सरल हो, शुद्ध हो उतना सरलता से पचता है और उतनी ही सरल ऊर्जा देता है जहाँ माँस को पचने के लिए 8 से 10 घंटे लगते हैं और इसका पाचन जटिल है वहीँ शाकाहारी भोजन न सिर्फ आसानी से 4-5 घंटों में पच जाता है बल्कि यह शरीर को सरल ऊर्जा देता है। मनुष्य शरीर और मन ही तो है (मैन इस नथिंग बट बॉडी एंड माइंड) जैसे ये दोनों होंगे वैसी ही जीवन की गुणवत्ता होगी। मानवीय आहार में हिंसा विधमान नहीं होनी चाहिए। भोजन गर हिंसा से प्राप्त है तो वह स्वभाव से ही मनुष्य में हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म देगा, आहार अगर अधिक तामसी है तो स्वभाव से ही वह मनुष्य को तामसी बनाएगा। यही प्रकृति का नियम है। आज समाज मे जितने अपराध बढ़ रहे हैं इसके पीछे एक बड़ा कारण खानपान और जीवनशैली है।
*३. वैज्ञानिक पक्ष=* मानवशरीर किसी भी तरीके से माँसाहारी नहीं यह सिद्ध किया जा चुका है _{१.मानव को पसीना आता है माँसाहारी जीव को पसीना नहीं आता/ २.मानव के आगे के दाँत नुकीले नहीं चपटे हैं और पीछे पीसने के दांत हैं जो ठीक गाय, बकरी, हिरण और बंदर के समान हैं/ ३.मानव के हाथ-पैर के नाखून नुकीले नहीं चपटे हैं जो बताते हैं कि हमे प्रकृति ने शिकार करने हेतु नहीं बनाया/ ४.मानव पाचनतंत्र में आँतों की लम्बई अधिक होती है जो सभी शाकाहारि जीवों के समान है/ ५.मानव ,गाय, भेड़-बकरी, हिरण आदि शिप शिप पानी पीते हैं मांसाहारी जानवर जैसे कुत्ता, बिल्ली, शेर, तेंदुआ आदि चांट कर पानी पीते हैं}_
👉🏼अंडे और मांस में कुछ ऐसे रसायन होते हैं, जो शरीर हेतु हानिकारक हैं। आज अमेरिका जहाँ लोग अत्यधिक मांसाहारी है वहाँ ज्यादातर लोग घातक बीमारियों के शिकार हैं, जिसमे ज्यादातर लोग मनोरोग से अधिक पीड़ित हैं।
बाजार में जो अंडा बिक्री हो रहा है, वह ब्रायलर अर्थात हाइब्रिड मुर्गियों से प्राप्त है, जिन्हें इंजेक्ट कर अंडा प्राप्त किया जाता है। मुर्गियाँ मरे न इस हेतु उन्हें खूब दवाईयाँ दी जाती हैं, जिसमे एंटीबायोटिक का डोज भी शामिल है। यह एंटीबायोटिक मुर्गे के मांस और मुर्गियों के अंड्डों के माध्यम से मानव शरीर मे प्रवेश कर रहा है। परिणामस्वरूप मानव शरीर मे पहले से ही एंटीबॉडी होने की वजह से उन्हें डॉक्टर्स द्वारा दिया गया एंटीबायोटिक दवाईयाँ काम करना बंद कर रही हैं। इस तरह मानव की स्वाभाविक और प्राकृतिक रोगप्रतिरोधक क्षमता खत्म हो रही है जो भयावह है। फलस्वरूप मानव बीमारियों को लेकर अत्यधिक संवेदनशील हो चुका है।
*४. आर्थिक पक्ष=* एक अंडा 5 से 6 रुपए में प्राप्त है जबकि इतने में बच्चों तक (स्कूलों में) A2 दूध और अंकुरित अनाज की सप्लाई की जा सकती है। देशी गायों से प्राप्त दूध बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अत्यधिक लाभदायक है। इसमें भरपूर प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन अन्य खनिज एवं सभी आवश्यक विटामिन विधमान हैं। वहीं गर मौसमी फल दिया जाए तो केला, अमरूद, संतरा, सीताफल, पपीता, चीकू जैसे पोषक फल जो खनिजों और विटामिन से भरे हुवे हैं का वितरण सम्भव है।
*५. सामाजिक पक्ष=* वैश्विक स्तर पर जो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या गहराई है जिससे दिनप्रतिदिन भूजल नीचे जा रहा है। मनुष्य के लिए पिने का पानी और कृषि हेतु सिंचाई का पानी अधिक आवश्यक है। मांसाहार के उत्पादन में अधिक पानी की खपत होती है 1 किलो गोभी 65 दिनों में तैयार होता है जो सरल है जबकि 1 किलो मांस 5 महीने में तैयार होता है अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है। अतः माँसाहार अधिक संसाधनों का दोहन करता है एक महंगा सौदा है। _शाकाहार ही विश्व का भोजन है और इसी से ही पूरे विश्व की खाद्य पूर्ति सम्भव है_ ऐसे में सरकारों को चाहिए कि शाकाहार (अर्थात कृषि) को बढ़ावा दे न कि मांसाहरी (अर्थात मुर्गे और बकरे पालन) को।
*वैश्विक पक्ष=* शाकाहार से हम हरियाली, खेत-खलिहान को बढ़ावा देते हैं, जिससे हमारा ग्लोब अधिक हरा होता है जबकि इसके ठीक विपरीत मांसाहार भूमि को बंजर बनाता है, यह उधोग/व्यवसाय प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है हिंसा को बढ़ावा देने से प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्तियाँ बढ़ती हैं आज विश्व मे मौसम परिवर्तन की यह मुख्य वजहों में से एक हैं। अतः मांसाहार को बढ़ावा देना समाज मे अस्थिरता लेकर आएगा। मांसाहार को बढ़ावा देकर हम आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय कर रहे हैं।
छत्तीसगड़ राज्य सरकार द्वारा स्कूल आंगनबाड़ियों में छोटे बच्चों को अंडा परोसना किसी भी तरीके से उचित नहीं। *यह सिर्फ राज्य तक कि समस्या नहीं है, यह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है। इसपर गर रोक नहीं लगाया गया तो यह भयावह दुर्गामी परिणाम लेकर आएगा।* वर्तमान समय मे मानव सभ्यता के समक्ष दो बड़ी समस्याएं खड़ी हैं एक पिने के पानी की और दुसरी कृषि में सिंचाई हेतु जल की, कृषि की अपेक्षा माँसाहार में जल और चारे की खपत अधिक है, जबकि शाकाहार में ऊर्जा व पोषण के अनेकों विकल्प मवजुद हैं। माँसाहार व्यवसाय पर मांसाहारी उत्पादों पर कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि इसे सरकारी तौर पर हतोत्साहित किया जा सके। यह पूरे विश्व को भारत की ओर से एक सकारात्मक संदेश होगा, भारत ऐसे ही नीतियों और योजनाओं की मदद से विश्व गुरु बन सकता है। देश का संविधान देश के भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु बनाया जाता है, जब देश के लोग स्वस्थ होंगे निरोगी होंगे तभी कोई देश शक्तिशाली, समृद्ध और विकसित हो सकता है अतः मानवता को चाहिए कि संविधान में दिए गए अधिकारों का जिम्मेदारी, सकारात्मक एवं लोक कल्याणार्थ उपयोग करें।
*लेखक- दीपक सार्वा*
_(समाज सुधारक, कृषि प्रयोगकर्ता, विचारक।)_
_संस्थापक- प्रकृति गौ उत्पादक समिति।_
_संयोजक- सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि (छत्तीसगड़)_
_जनक- स्वस्थ भारत मिशन_
_संभाग प्रमुख एवं सलाहकार- मिशन 100 करोड़ वृक्ष_
_कार्यकर्ता एवं समर्थक- अखिल विश्व गायत्री परिवार_/ आर्ट ऑफ लिविंग
_एलुमनाई- आई.आई.टी गुवाहाटी_
👉🏼गायत्री परिवार के प्रतिनिधत्व में सर्वधर्म सर्वसमाज के लोग आज शाषण के धर्मविरोधी, संस्कृति विरोधी और विज्ञानविरोधी कुनीति के खिलाफ सरकार से लोहा लेने रोड पर हैं।
*_आंदोलन तो शुरू हुआ है, परंतु गर ये सरकार किन्हीं कारणों से इस अंधे नीति को वापिस नहीं ली तो गायत्री परिवार की ही नहीं पूरे मानवता की हार होगी_* गर ऐसा हो गया तो इसके बाद हम समाज कभी खड़े नहीं हो सकेंगे, *_क्यूँकि जनता का धर्म से विश्वास उठ जाएगा, दोबारा कोई लड़ने सड़क में नहीं आएगा_*
धर्म क्या है? आज किसी भी विवेकशील मानव को यह बताने की आवश्यकता नहीं।
👉🏼 *प्रकृति प्रदत्त साधन संसाधनों का सदुपयोग ही धर्म और दुरपयोग ही अधर्म है* = वर्तमान मानव सभ्यता मे मानव द्वारा आवश्यकता से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति, वैश्विक उधोग-धंधों द्वारा प्रकृति के विरुद्ध कारखाने-फैक्ट्री जिनसे वायुमंडलीय प्रदूषण एवं जलप्रदूषण खड़ा हुआ है, पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले वाहन बनाएँ, हम विकास के नाम रोजाना जंगलों को कांट रहे हैं। विचार कर देखने से समझ आता है २१वीं सदी का मानव जीवनोपयोगी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है, जहाँ एक ओर पूरी मानवता सुविधाभोगी हो चुकी है तो वहीं दूसरी ओर मौत के साथ खेल रही है। समाज इससे पहले इतना अज्ञानी कभी न था, आज हर इंसान मिलकर एक दूसरे की मौत का इंतजाम कर रहे है, क्यूँकि इस अदृश्य शोषणकारी व्यवस्था को हम ही बढ़ावा दे रहे हैं। समाज मे फर्क मात्र इतना आगया है कि हम अपने जीवन के और परिवेश के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं। न ही आज कोई युवा पत्रकारिता करता और न आज के युवा अखबार पढ़ते, शायद इसलिए पत्रकारिता में भी अब पहली जैसी बात नहीं, दम नहीं की यह समाज को जागृत कर सके, दिशा दे सके।
मेरी बालोद जिला समन्वयक से विनती रही है, पूरे धरना प्रदर्शन में मैंने हर स्तर पर साथ दिया है।
_*पुरजोर से मैंने यही कहा है भविष्य का धर्म वैज्ञानिक धर्म*_ धरना, रैली आदि अपनी जगह ठीक है। हम सिर्फ धर्म और संस्कृति का नाम लेकर सरकारी योजनाएँ विफल नहीं कर सकेंगे, *हमें विज्ञान को भी साथ लेकर चलना होगा* जब तक हम यह सिद्ध नहीं कर दें कि *धर्म ही सही विज्ञान है और विज्ञान ही सही धर्म है* तब तक हम जीत नहीं सकेंगे, और समाज का सुधार नहीं कर सकेंगे।
*सत्य सत्य ही रहता है चाहे उसे किसी भी कसौटी पर कसा जाए, गर कसा न जा सका तो सत्य सत्य नहीं*। यह बात अंडे मात्र की नहीं है बल्कि उससे कहीं गंभीर है।
आज जो समाज है वह किसी धर्म को नहीं मानता, आज नास्तिकता का दौर अपनी चरम पर है। आने वाले समय के युवाओं को अगर धर्म की ओर लीन करना है एक सही इंसान बनाना है तो हमें *धर्म और विज्ञान के बीच के फासलों को मिटाना होगा*।
तब ही युगपरिवर्तन संभव होगा पंडित श्री राम शर्मा आचार्य और गांधी के सपनों का भारत।
जो सिद्ध किया जा सकता है उसे पूरी दुनिया मानती है, *आज संतों से अधिक विश्व में वैज्ञानिकों और डॉक्टर्स को समझा जाता है।* जिसका कारण साफ है, (ज्यादातर) संतों का अधिक ध्यान समाज के विश्लेषन कि ओर होता है वे दर्शन और आध्यात्म की बातें करते हैं, वहीं वैज्ञानिक और डॉक्टर्स समस्या का तर्क पूर्ण और शोध द्वारा समाधान बताते हैं और अपने फितरत से ही वे समाधान करने वाले (प्रॉब्लम सॉल्वर) हैं। आज दुनिया को समस्या बताने वाले नहीं समाधान बताने वाले चाहिए।
*हमारी गैरजिम्मेदारी और असंवेदनशीलता ही सामाजिक समस्याओं का मूल*👇🏼
आज का समाज हर एक व्यक्ति से संवेदनशील होने की मांग करता है, बस इसी की कमी है। आज हम सब निहायती स्वार्थी हो चुके हैं, हम सभी प्रायः एक ही किस्म के समस्या से जूझ रहे हैं परंतु मिलकर कोई भी लड़ना नहीं चाहते। आवाज उठाने, घर से बाहर निकलने, सरकार से लड़ने में या तो कोई रुचि नहीं या हिचकिचाते और डरते हैं। कारण इतना मात्र है की हमारे घर किसी का खून नहीं हुआ, किसी की बेटी पर बालात्कार नहीं हुआ, कोई एक्सीडेंट से नहीं मरा, किसी को जहरीले भोजन खाकर अब तक कैंसर और हार्ट अटैक जैसी जानलेवा बीमारियाँ नहीं हुईं, कोई अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण का शिकार नहीं हुआ, कोई जन प्रतिनिधियों द्वारा धमकाया या ठगा नहीं गया। 👆🏼अतः हम उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब उपरोक्त घटनाएं हमारे साथ घटेंगी।
🏹 _उनके लिए जिन्हें लगता है अंडा परोसने का विरोध गलत है और जो चाय ठेलों और दफ्तरों में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ इस मुद्दे पर बात करते हैं, एकबार फिरसे सोच लीजिए।_
*अंडा खाना शरीर ही नहीं समाज के लिए क्यूँ घातक है? इसके विभिन्न पहलूओं पर प्रकाश डाला जा रहा है आप को जिस तरह से भी समझ आजए।*👇🏼
*१. धार्मिक/ सांस्कृतिक पक्ष=* भारतीय संस्कृति में पतंजलि, चरक जैसे ऋषियों ने आयुर्वेद दिया है जो सर्वमान्य है पूरा विश्व आज आयुर्वेद की ओर रुख कर रहा है। आयुर्वेद अनुसार अंडा शरीर के लिए विष है और इसके दुर्गामी परिणाम घातक होंगे। पिछले कुछ दशकों में अंडे को पोषण के नाम पर कुप्रचारीत कर समाज के लोगों में इसके प्रति ग़लत जानकारियाँ दी गईं जिस कारण आज इसे स्वीकार लिया गया है। यहाँ तक कि सरकारों ने इसके टीवी पर विज्ञापन दिए कि रोज अंडा खाना सेहत के लिए फायदेमंद है। स्कूल के किताबों में भोजन की थाली पर चित्र छापा जाता है जिसमे अंडा और मांस को पोषक आहार बताया जाता है। जैसे समाज ने चाय जैसा घातक पेय अपना रखा है वैसे ही अंडे और मांस के साथ भी है।
*२. आध्यात्मिक पक्ष=*
आध्यात्म और मनोविज्ञान कहता है आहार जितना सरल हो, शुद्ध हो उतना सरलता से पचता है और उतनी ही सरल ऊर्जा देता है जहाँ माँस को पचने के लिए 8 से 10 घंटे लगते हैं और इसका पाचन जटिल है वहीँ शाकाहारी भोजन न सिर्फ आसानी से 4-5 घंटों में पच जाता है बल्कि यह शरीर को सरल ऊर्जा देता है। मनुष्य शरीर और मन ही तो है (मैन इस नथिंग बट बॉडी एंड माइंड) जैसे ये दोनों होंगे वैसी ही जीवन की गुणवत्ता होगी। मानवीय आहार में हिंसा विधमान नहीं होनी चाहिए। भोजन गर हिंसा से प्राप्त है तो वह स्वभाव से ही मनुष्य में हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म देगा, आहार अगर अधिक तामसी है तो स्वभाव से ही वह मनुष्य को तामसी बनाएगा। यही प्रकृति का नियम है। आज समाज मे जितने अपराध बढ़ रहे हैं इसके पीछे एक बड़ा कारण खानपान और जीवनशैली है।
*३. वैज्ञानिक पक्ष=* मानवशरीर किसी भी तरीके से माँसाहारी नहीं यह सिद्ध किया जा चुका है _{१.मानव को पसीना आता है माँसाहारी जीव को पसीना नहीं आता/ २.मानव के आगे के दाँत नुकीले नहीं चपटे हैं और पीछे पीसने के दांत हैं जो ठीक गाय, बकरी, हिरण और बंदर के समान हैं/ ३.मानव के हाथ-पैर के नाखून नुकीले नहीं चपटे हैं जो बताते हैं कि हमे प्रकृति ने शिकार करने हेतु नहीं बनाया/ ४.मानव पाचनतंत्र में आँतों की लम्बई अधिक होती है जो सभी शाकाहारि जीवों के समान है/ ५.मानव ,गाय, भेड़-बकरी, हिरण आदि शिप शिप पानी पीते हैं मांसाहारी जानवर जैसे कुत्ता, बिल्ली, शेर, तेंदुआ आदि चांट कर पानी पीते हैं}_
👉🏼अंडे और मांस में कुछ ऐसे रसायन होते हैं, जो शरीर हेतु हानिकारक हैं। आज अमेरिका जहाँ लोग अत्यधिक मांसाहारी है वहाँ ज्यादातर लोग घातक बीमारियों के शिकार हैं, जिसमे ज्यादातर लोग मनोरोग से अधिक पीड़ित हैं।
बाजार में जो अंडा बिक्री हो रहा है, वह ब्रायलर अर्थात हाइब्रिड मुर्गियों से प्राप्त है, जिन्हें इंजेक्ट कर अंडा प्राप्त किया जाता है। मुर्गियाँ मरे न इस हेतु उन्हें खूब दवाईयाँ दी जाती हैं, जिसमे एंटीबायोटिक का डोज भी शामिल है। यह एंटीबायोटिक मुर्गे के मांस और मुर्गियों के अंड्डों के माध्यम से मानव शरीर मे प्रवेश कर रहा है। परिणामस्वरूप मानव शरीर मे पहले से ही एंटीबॉडी होने की वजह से उन्हें डॉक्टर्स द्वारा दिया गया एंटीबायोटिक दवाईयाँ काम करना बंद कर रही हैं। इस तरह मानव की स्वाभाविक और प्राकृतिक रोगप्रतिरोधक क्षमता खत्म हो रही है जो भयावह है। फलस्वरूप मानव बीमारियों को लेकर अत्यधिक संवेदनशील हो चुका है।
*४. आर्थिक पक्ष=* एक अंडा 5 से 6 रुपए में प्राप्त है जबकि इतने में बच्चों तक (स्कूलों में) A2 दूध और अंकुरित अनाज की सप्लाई की जा सकती है। देशी गायों से प्राप्त दूध बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अत्यधिक लाभदायक है। इसमें भरपूर प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन अन्य खनिज एवं सभी आवश्यक विटामिन विधमान हैं। वहीं गर मौसमी फल दिया जाए तो केला, अमरूद, संतरा, सीताफल, पपीता, चीकू जैसे पोषक फल जो खनिजों और विटामिन से भरे हुवे हैं का वितरण सम्भव है।
*५. सामाजिक पक्ष=* वैश्विक स्तर पर जो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या गहराई है जिससे दिनप्रतिदिन भूजल नीचे जा रहा है। मनुष्य के लिए पिने का पानी और कृषि हेतु सिंचाई का पानी अधिक आवश्यक है। मांसाहार के उत्पादन में अधिक पानी की खपत होती है 1 किलो गोभी 65 दिनों में तैयार होता है जो सरल है जबकि 1 किलो मांस 5 महीने में तैयार होता है अधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है। अतः माँसाहार अधिक संसाधनों का दोहन करता है एक महंगा सौदा है। _शाकाहार ही विश्व का भोजन है और इसी से ही पूरे विश्व की खाद्य पूर्ति सम्भव है_ ऐसे में सरकारों को चाहिए कि शाकाहार (अर्थात कृषि) को बढ़ावा दे न कि मांसाहरी (अर्थात मुर्गे और बकरे पालन) को।
*वैश्विक पक्ष=* शाकाहार से हम हरियाली, खेत-खलिहान को बढ़ावा देते हैं, जिससे हमारा ग्लोब अधिक हरा होता है जबकि इसके ठीक विपरीत मांसाहार भूमि को बंजर बनाता है, यह उधोग/व्यवसाय प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करता है हिंसा को बढ़ावा देने से प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्तियाँ बढ़ती हैं आज विश्व मे मौसम परिवर्तन की यह मुख्य वजहों में से एक हैं। अतः मांसाहार को बढ़ावा देना समाज मे अस्थिरता लेकर आएगा। मांसाहार को बढ़ावा देकर हम आने वाली पीढ़ियों के साथ अन्याय कर रहे हैं।
छत्तीसगड़ राज्य सरकार द्वारा स्कूल आंगनबाड़ियों में छोटे बच्चों को अंडा परोसना किसी भी तरीके से उचित नहीं। *यह सिर्फ राज्य तक कि समस्या नहीं है, यह एक राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति है। इसपर गर रोक नहीं लगाया गया तो यह भयावह दुर्गामी परिणाम लेकर आएगा।* वर्तमान समय मे मानव सभ्यता के समक्ष दो बड़ी समस्याएं खड़ी हैं एक पिने के पानी की और दुसरी कृषि में सिंचाई हेतु जल की, कृषि की अपेक्षा माँसाहार में जल और चारे की खपत अधिक है, जबकि शाकाहार में ऊर्जा व पोषण के अनेकों विकल्प मवजुद हैं। माँसाहार व्यवसाय पर मांसाहारी उत्पादों पर कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि इसे सरकारी तौर पर हतोत्साहित किया जा सके। यह पूरे विश्व को भारत की ओर से एक सकारात्मक संदेश होगा, भारत ऐसे ही नीतियों और योजनाओं की मदद से विश्व गुरु बन सकता है। देश का संविधान देश के भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु बनाया जाता है, जब देश के लोग स्वस्थ होंगे निरोगी होंगे तभी कोई देश शक्तिशाली, समृद्ध और विकसित हो सकता है अतः मानवता को चाहिए कि संविधान में दिए गए अधिकारों का जिम्मेदारी, सकारात्मक एवं लोक कल्याणार्थ उपयोग करें।
*लेखक- दीपक सार्वा*
_(समाज सुधारक, कृषि प्रयोगकर्ता, विचारक।)_
_संस्थापक- प्रकृति गौ उत्पादक समिति।_
_संयोजक- सुभाष पालेकर प्राकृतिक कृषि (छत्तीसगड़)_
_जनक- स्वस्थ भारत मिशन_
_संभाग प्रमुख एवं सलाहकार- मिशन 100 करोड़ वृक्ष_
_कार्यकर्ता एवं समर्थक- अखिल विश्व गायत्री परिवार_/ आर्ट ऑफ लिविंग
_एलुमनाई- आई.आई.टी गुवाहाटी_
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